होली की पौराणिक प्रामाणिक कथा | Holi Katha in Hindi
होली का त्योहार हमारी धर्म-संस्कृति का अक्षुण्ण हिस्सा हैं। हिंदू पांचांग के अनुसार, होली फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाने वाला रंगो का त्योहार है। क्या आप जानते हैं कि यह त्योहार कलियुग ही नहीं, बल्कि सतयुग से निरंतर मनाया जाता रहा है। करीब-करीब 39 लाख वर्ष पहले से? जी हां, धर्माचार्य तो यही कहते हैं।
तो आइये जानते हैं होली की पूरी कथा
वर्ष 2024 में 24 मार्च को देशभर में होलिका दहन किया जाएगा। लेकिन होली कब से मनाई जा रही है, कभी न कभी यह सवाल तो आपके मन जरूर आया होगा। क्या आप जानते हैं कि होली आज से 39 लाख वर्ष पहले, यानी श्री राम-कृष्ण के काल से भी पहले से, यानि सतयुग से मनाई जा रही है।
सबसे पुरानी और प्रचलित कथा
होली मनाने की शुरुआत कब और कैसे हुई, इस पर ज्योतिषाचार्य बताते हैं कि इस बारे में कई प्रचलित कथाएं हैं। किंतु, सबसे पुरानी और प्रचलित कथा सतयुग है। ऐसे में कह सकते हैं कि होली सतयुग से मनाई जाती रही है। ज्योतिषाचार्य आगे कहते हैं कि, चार युग होते हैं- सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग।
हमारे शास्त्रों में 1 युग, लाखों वर्षों का बताया गया है। जिसमे सतयुग करीब 17 लाख 28 हजार वर्ष, त्रेतायुग 12 लाख 96 हजार वर्ष, द्वापर युग 8 लाख 64 हजार वर्ष, और कलियुग 4 लाख 32 हजार वर्ष का होना तय है। इस हिसाब से ही गणना कहती है कि होली 39 लाख वर्ष पहले से, सतयुग से मनाई जा रही है। तब विष्णु भगवान ने नृसिंह अवतार लिया था और हिरण्यकश्यप का वध किया था।
हिन्दू धर्म ग्रंथों की मान्यता के अनुसार, त्रिदेव इस सृष्टि का संचालन करते हैं। ब्रह्माजी सृजनकर्ता हैं, विष्णुजी पालनहार, तो शिवजी संहारक। विष्णु भगवान् संतुलन बनाए रखने के लिए समय-समय पर अवतार लेते रहते हैं। गरुड़ पुराण में भगवान विष्णु के 10 अवतारों का जिक्र है।
- सतयुग में भगवान् विष्णु ने मत्स्य, कूर्म, वाराह और नृसिंह अवतार लिया।
- त्रेता में वामन, परशुराम और श्रीराम का।
- द्वापर में वह श्रीकृष्ण रूप में भक्तों के बीच आए।
- कलियुग में महात्मा बुद्ध और कल्कि अवतार।
अपने कल्कि अवतार के समय में वह कलियुग और सतयुग के संधिकाल में अवतरित होंगे।
अभी तो कलियुग की शुरुआत ही हुई है। एक तरफ प्रभु अपने सभी अवतारों में दुष्टों का संहार करते हैं और दूसरी तरफ, अपनी लीलाओं से जीवन जीने का तरीका भी सिखाते हैं। होली का त्योहार भी कुछ ऐसा ही है, जिसका आरंभ सतयुग में भगवान के नृसिंह अवतार के समय हुआ।
क्या है सबसे प्रचलित कथा?
सतयुग में हिरण्यकश्यप नाम का एक अति पराक्रमी असुर राजा हुआ करता था। हिरण्यकश्यप के भाई, हिरण्याक्ष का भगवान विष्णु ने वराह अवतार लेकर वध किया था, जिसके कारण हिरण्यकश्यप भगवान् विष्णु को अपना शत्रु मानता था। हिरण्यकश्यप का विवाह कयाधु से हुआ। जिससे उसे प्रहलाद नामक पुत्र की प्राप्ति हुई। हिरण्यकश्यप ने मनचाहे वरदान के लिए ब्रह्माजी की तपस्या करना शुरू कर दिया।
इस दौरान देवताओं ने उसकी नगरी पर आक्रमण कर दिया जिसमे वह असुरों से परास्त हो गए । परास्त होकर वापस देवलोक लौटते समय देवराज इंद्र ने हिरण्यकश्यप की गर्भवती पत्नी, कयाधू का अपहरण कर लिया। देवर्षि नारद ने बेचारी आसुरी का विलाप सुना और उसे इंद्र की कैद से मुक्त करा लिया, और अपने आश्रम में स्थान दिया। वहीं पर हिरण्यकश्यप के पुत्र प्रह्लाद का जन्म हुआ। देवर्षि नारद मुनि की संगत में रहने के कारण प्रह्लाद भगवान विष्णु का भक्त बन गया।
उधर, कई वर्षों की कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने, हिरण्यकश्यप को दर्शन दिए। हिरण्यकश्यप ने वरदान में अमरत्व मांगा। ब्रह्मा जी के द्वारा अमरत्व न देने पर हिरण्यकश्यप ने कहा कि मेरी मृत्यु न तो किसी मनुष्य और न ही किसी पशु के हाथों हो, न ही मैं किसी अस्त्र से न ही किसी शस्त्र से मारा जा सकूँ, ना ही मेरी मृत्यु दिन में आये और न ही रात में, मैं ना भवन के अंदर मरु और ना ही बाहर, न तो भूमि के ऊपर और ना ही आकाश में हो मेरी मृत्यु हो। इस पर ब्रह्माजी ने तथास्तु कहा और वहाँ से अंतर्ध्यान हो गए।
कुल मिलाकर,अपनी समझ में उसने अमरता का वरदान मांग लिया। जिसके बाद वह निरंकुश हो गया। जिसके चलते उसने ऋषि-मुनियों की हत्या करवाना शुरू कर दिया और स्वयं को भगवान घोषित कर दिया। उसने अपने राज्य में यज्ञ आहुति भी बंद करवा दी और भगवान के भक्तों को सताना शुरू कर दिया किंतु, स्वयं उसका पुत्र प्रह्लाद विष्णु भक्ति में लीन रहता। यह बात जब हिरण्यकश्यप को पता चली तो इस पर वह क्रोधित हो गया । बार-बार समझाने के बाद भी जब प्रह्लाद ने प्रभु भक्ति की जिद नहीं छोड़ी तो हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को मारने का मन बना लिया।
अब शुरू होती है होलिका की कहानी
हिरण्यकश्यप की एक बहन थी जिसका नाम था – होलिका। होलिका ने अपनी कठोर साधना से एक वस्त्र प्राप्त किया। जिसके अनुसार अगर वह उस वस्त्र को अपने ऊपर धारण कर ले तो, अग्नि उसे जला नहीं सकती थी । हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को मारने के हर संभव प्रयास कर लिए, जिसमे वह बार-बार असफल ही हुआ। परन्तु प्रह्लाद की भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान् विष्णु हर बार उसे बचा लेते थे। अपने भाई को परेशानी में देखकर होलिका ने हिरण्यकश्यप से कहा कि वह प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर अग्नि में बैठ जाएगी, ताकि प्रह्लाद भाग न सकेगा और वह उसी अग्नि में जलकर ख़ाक हो जायेगा।
बस फिर क्या था चिता सजाई गयी और होलिका, प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर उस जलती हुई चिता पर बैठ गयी। किंतु भगवान विष्णु की कृपा से तेज आंधी चली और जो वस्त्र होलिका ने ओढ़ रखा था। वह प्रह्लाद के ऊपर आ गया और होलिका जलकर भस्म हो आगयी। होलिका के जलने और प्रह्लाद के बच जाने पर नगरवासियों ने उत्सव मनाया, जिसे हम छोटी होली के रूप में मानते हैं। इसके बाद जब यह बात चारों ओर फैली तो विष्णु भक्तों ने अगले दिन और भी भव्य तरीके से उत्सव मनाया। जिसे हम धुलेडी के रुप में रंगों के साथ खेलकर मानते हैं। होलिका से जुड़ा होने के कारण आगे इस उत्सव का नाम ही होली पड़ गया।
अपने अगले प्रयास में हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को मारने के लिए उसे एक खंभे से बांध दिया। वह प्रह्लाद को मारने ही वाला था कि भगवान विष्णु खंभा फाड़कर नरसिंह अवतार में प्रकट हुए। उन्होंने हिरण्यकश्यप को उसके भवन की चौखट पर ले जाकर, संध्या के समय, अपने गोद में रखकर नाखूनों की सहायता से उसका वध कर दिया। इस तरह ब्रह्माजी का वरदान भी नहीं टूटा और हिरण्यकश्यप का अंत भी हो गया। भगवान को भक्त प्रह्लाद को उसका उत्तराधिकारी बना दिया।
होली का क्या है महत्व?
हिंदू धर्म के सभी त्योहार में खुशियां हैं, लेकिन सभी त्योहारों के पीछे गंभीर संदेश भी छिपा हुआ है। जैसे, दिवाली अधर्म पर धर्म के विजय का प्रतीक है, वैसे ही होली भी है। इस त्योहार का स्पष्ट संदेश है कि कभी भी घमंड नहीं करना चाहिए। ईश्वर से बढ़कर कोई नहीं होता। जो भी विधि के विधान को नहीं मानता, उसे कोई बचा नहीं सकता, जैसे होलिका या हिरण्यकश्यप वरदान के बावजूद भी मारे गए।
होली का त्योहार प्रेम और सद्भावना से जुड़ा हुआ त्यौहार है जिसमें अध्यात्म का अनोखा रूप झलकता है इस त्यौहार को रंग और गुलाल के साथ मनाने की परंपरा है इस त्यौहार के साथ कई पौराणिक कथाएं एवं मान्यताएं भी जोड़ी हुई हैं।
पौराणिक महत्व
होली का त्यौहार भारतवर्ष में अति प्राचीन काल से मनाया जाता आ रहा है। इतिहास की दृष्टि से देखें तो यह वैदिक काल से मनाया जाता रहा है। हिंदू मास के अनुसार होली के दिन से नए संवत की शुरुआत होती है। चैत्र कृष्ण प्रतिपदा के दिन धरती पर प्रथम मानव मनु का जन्म हुआ था इसी दिन कामदेव का पुनर्जन्म भी हुआ था। इन सभी खुशियों को व्यक्त करने के लिए ही रंगों से भरा हुआ यह उत्सव मनाया जाता है।
इसके अलावा भगवान् श्रीकृष्ण को भी होली का यह त्यौहार अतिप्रिय था जिसके चलते आज भी वृन्दावन में होली के त्यौहार को विशेष रुप से मनाया जाता है। जिसमे मटकी फोड़ना और लट्ठमार होली प्रमुख हैं।