गंगोत्री धाम का इतिहास और पौराणिक कथाएं | Gangotri Temple Story In Hindi, All About Goddess Ganga

गंगोत्री का इतिहास | देवी गंगा का जन्म, उद्गम और प्रचलित कथाएं | गंगा पुत्र भीष्म का पूर्वजन्म | गंगा शांतनु विवाह | Gangotri Temple History In Hindi | Gangotri Story in Hindi | Goddess Ganga Birth, Origin And History | Pre-Birth of Ganga’s Son Bhishma | Marriage of Ganga Shantanu

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देवी गंगा का उद्गम | Origin of Gangotri Temple

पवित्र नदी गंगा का उदगम गंगोत्री ग्लेशियर में स्थित गौमुख में है, जहाँ पर गंगोत्री से 19 किमी की पैदल यात्रा द्वारा पहुँचा जा सकता है। कहते हैं कि यहां के बर्फिले पानी में नहाने से सभी पापों से मुक्ति हो जाती हैं। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, यह माना जाता है कि गंगोत्री वह स्थान है जहां गंगा नदी स्वर्ग से उतरी थी। श्री हरी नारायण के अवतार भगवान् श्री राम के पूर्वज भगीरथ ने यहां एक पवित्र शिलाखंड पर बैठकर भगवान् शिव की तपस्या की थी। जिसे आज भगीरथ शिला के नाम से जाना जाता है, और यह गंगा मंदिर के पास स्थित है, जिसे गोरखा जनरल, अमर सिंह थापा द्वारा बनाया गया था।

भगीरथ की तपस्या से प्रसन्न होकर ही गंगा स्वर्ग छोड़कर धरती पर अवतरित हुई थी जिसके कारण ही गंगा नदी को भगीरथी के नाम से भी जाना जाता है। यह देवी गंगा को समर्पित सबसे ऊंचा मंदिर है। सभी नदियों में सबसे पवित्र गंगा है। गंगा शुद्धता का प्रतीक है। यह सभी पापों को दूर करती है, यह एक माँ देवी की रुप में जानी जाती है, जो जीवन के जन्म से लेकर मृत्यु तक सभी पापो को दूर करती है। माना जाता है कि गंगा नदी श्री हरी विष्णु के बड़े पैर से पैदा हुई थी। गंगोत्री का गंगा जी मंदिर समुद्रतल से लगभग 3100 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यह स्थान उत्तरकाशी से 100 किलोमीटर तथा ऋषिकेश से लगभग 248 किलोमीटर दूरी पर स्तिथ है। यह छोटा चार धाम यात्रा का दूसरा पड़ाव है।

देवी गंगा का जन्म

माना जाता है की जब वामन रूप में राक्षस बलि से संसार को मुक्त कराने के बाद जब ब्रह्मदेव ने भगवान विष्णु का चरण धोया और इस जल को अपने कमंडल में भर लिया। तब इस जल के तेज से ब्रह्मदेव के कमंडल से गंगा जी का जन्म हुआ और वह ब्रह्मा के संरक्षण में स्वर्ग में रहने लगी। बाद में ब्रह्मदेव ने गंगा जी को हिमालय को सौंप दिया इस तरह देवी पारवती और देवी गंगा दोनों बहने हुयी। लेकिन जब गंगा जी को शिव जी से प्रेम हो गया, तो गंगा जी ने भगवान् शिव की घोर तपस्या की, जिससे शिव जी ने प्रसन्न होकर जब गंगाजी को वरदान देना चाहा, तो माता पारवती ने इस पर अपनी असहमति जताई, जिसके कारण शिव जी ने गंगाजी को अपनी जटाओ में धारण कर अपने साथ रहने का वचन दिया।

देवी गंगा के पृथ्वी अवतरण की कथा

पुराणों के अनुसार इक्ष्वाकु वंश में सगर नामक एक प्रसिद्ध राजा हुए। वह भगवान श्री राम और भगीरथ के पूर्वज थे। राजा सगर की दो रानियां थीं- केशिनी और सुमति। लेकिन राजा सगर की कोई संतान नहीं थी, जिसकी वजह से वह काफी दुखी रहते थे। एक दिन राजा सगर अपनी दोनों रानियों सहित हिमालय पर संतान प्राप्ति के लिए तपस्या करने चले गए। वहां पर उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी के मानस पुत्र ऋषि भृगु प्रकट हुए और उन्हें वरदान दिया कि एक रानी को साठ हजार अभिमानी पुत्र होंगे और दूसरी रानी से एक पुत्र होगा जो वंश को आगे चलाएग। वरदान के कुछ समय बाद रानी सुमति ने तूंबी के आकार के एक गर्भ-पिंड को जन्म दिया। जिसके फटने पर साठ हजार पुत्रों का जन्म हुआ। जबकि रानी केशिनी ने एक पुत्र को जन्म दिया। जिसका नाम असमंजसा हुआ। पृथ्वी पर से सरे राक्षसों का वध करने के बाद राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ किया और उन्होंने अपने साठ हजार एक पुत्रों को अश्वमेध के घोड़े की सुरक्षा में नियुक्त कर दिया।

देवराज इंद्र ने किया छल

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देवराज इंद्र

अश्वमेध यज्ञ की सूचना पाकर देवताओ के राजा इंद्र को अपना सिंहासन छीन जाने का डर सताने लगा इसीलिए देवराज इंद्र ने उस घोड़े को छलपूर्वक चुराकर कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया। अभिमान से चूर राजा सगर के साठ हजार पुत्रों ने पृथ्वी को खोदना आरंभ कर दिया और पाताल तक जा पहुँचे। राजा के पुत्रों ने कपिल मुनि के आश्रम में यज्ञ का घोड़ा बंधा हुआ देखा तो उन्होंने सोचा की घोडा कपिल मुनि ने ही चुराया है और उनकी निंदा करने लगे और शोर करने लगे। जिससे कपिल मुनि का ध्यान भांग हो गया और उन्होंने अपनी आग्नेय दृष्टि से तत्क्षण सभी को जलाकर भस्म कर दिया। जब राजा सगर को इस बारे में पता चला तो वे कपिल मुनि से क्षमा याचना करने लगे इस पर कपिल मुनि ने बताया कि आपके पुत्रों की आत्मा को तभी मुक्ति मिलेगी जब गंगाजल उनका स्पर्श करेगा। राजा सगर ने गंगा को पृथ्वी पर प्रकट करने के लिए कई प्रयास किये और अंत में तीस हज़ार वर्ष के बाद वे परलोक सिधार गए।

काफी समय बाद असमंजसा के पुत्र अम्शुमान जब कपिल मुनि के आश्रम पहुंचे और उनसे गंगा के अवतरण का उपाय पूछा तो उन्होंने बताया की केवल उनका पोता भगीरथ ही गंगा को स्वर्ग से निचे ला सकता है। तो इस तरह अम्शुमान के बाद दिलीपा और दिलीपा के बाद भगीरथ का जन्म हुआ । तब भागीरथ ने अपने पूर्वजों की मुक्ति हेतु और देवी गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए 5500 वर्षों तक ब्रह्मा जी की घोर तपस्या की । भगीरथ की तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने गंगा को आदेश दिया कि वह पृथ्वी पर जाये और वहां से पाताललोक जाये ताकि भगीरथ के वंशजों को मोक्ष प्राप्त हो सके। तब गंगा ने कहा कि मैं इतनी ऊंचाई से जब पृथ्वी पर गिरूंगी, तो पृथ्वी इतना वेग कैसे सह पाएगी? तब भगीरथ ने शिवजी से प्रार्थना की कि वे गंगा के वेग को कम कर दें। और इसलिये भगवान शिव ने देवी गंगा को अपनी जटाओं में बांध लिया और केवल उसकी छोटी-छोटी धाराओं को ही बाहर निकलने दिया। शिव जी का स्पर्श प्राप्त करने से गंगा और अधिक पवित्र हो गयी।

बर्फीली नदी गंगोत्री के मुहाने पर, शिवलिंग चोटी के आधार स्थल पर गंगा पृथ्वी पर उतरी। जिस स्थान को आज गंगोत्री नाम से जाना जाता है, गंगोत्री का अर्थ होता है गंगा उतरी, अर्थात गंगा नीचे उतर आई इसलिये यह शहर का नाम गंगोत्री पड़ा।
भागीरथ ने तब गंगाजी को उस जगह जाने का रास्ता बताया जहां उनके पूर्वजों की राख पड़ी थी और इस प्रकार उनके पूर्वजो की आत्मा को मुक्ति मिली। गंगा एकमात्र ऐसी नदी है जो तीनों लोकों में बहती है-स्वर्ग, पृथ्वी, तथा पाताल। इसलिए संस्कृत भाषा में उसे “त्रिपथगा” (तीनों लोकों में बहने वाली) कहा जाता है पुराणों के अनुसार स्वर्ग में गंगा को मन्दाकिनी और पाताल में भागीरथी कहा जाता है।

देवी गंगा का नाम पड़ा जान्हवी

एक किंबदन्ती के अनुसार जब गंगा ने जाह्नु मुनि के आश्रम को पानी में डुबा दिया। तब जाह्नु मुनि क्रोध में पूरी गंगा को ही पी गये जब भगीरथ को ये बात पता चली तो भगीरथ ने जाह्नु मुनि से प्रार्थना की कि वे गंगा को छोड़ दे, जिससे गंगा अपने कार्य के लिए आगे बढ़ सके, भगीरथ की प्रार्थना से प्रसन्न होकर उन्होंने अपने कान से गंगा को बाहर निकाल दिया। इसलिये ही गंगा को जाह्नवी (जाह्नु की पुत्री) भी कहा जाता है।

माना जाता है कि पांडवों ने कुरूक्षेत्र में अपने सगे संबंधियों की मृत्यु पर प्रायश्चित करने के लिये देव यज्ञ गंगोत्री में ही किया था। गंगा जी शिव की जटाओं में रहने के कारण भी पवित्र मानी जाती है। गंगा को महाभारत के भीष्म पितामह की माता भी कहा जाता है, इसलिए भीष्म को गंगा पुत्र भीष्म के नाम से भी जाना जाता है।

देवी गंगा ने किया एक मनुष्य से विवाह

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देवी गंगा

एक कथा के अनुसार एक बार देवी गंगा अपने पिता ब्रह्मदेव के साथ देवराज इंद्र की सभा में आईं। यहां पर पृथ्वी के महाप्रतापी राजा महाभिष भी मौजूद थे। महाभिष और गंगा दोनों एक दूसरे को देखकर मोहित हो गए और सुध-बुध खो बैठे। इंद्र की सभा में नृत्य चल रहा था। परन्तु दोनों एक दूसरे में इतने खो गए थे की उन्हें किसी का भी आभास नहीं था। इससे क्रोधित होकर ब्रह्मा जी ने श्राप दिया कि आप दोनों लोक-लाज और मर्यादा को भूल गए हैं इसलिए आपको धरती पर जाना होगा। और आप दोनों एक दूसरे को पसंद करते हैं, इसलिए वहीं आपका मिलन होगा। जिसके फलस्वरूप गंगा जी को मनुष्य रूप में पृथ्वी लोक पर आना पड़ा और महाभिष का जन्म शान्तनु के रूप में हुआ। जो की भरतवंश के एक बड़े प्रतापी राजा सिद्ध हुए।

गंगा पुत्र भीष्म का पूर्वजन्म, महर्षि वशिष्ठ ने दिया श्राप

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गंगा पुत्र भीष्म

भीष्म के जन्म का नाम देवव्रत था, जो की अपने पूर्व जन्म में एक वसु थे | एक बार की बात है, कि कुछ वसु अपनी पत्नियों के साथ मेरु पर्वत पर भ्रमण करने गए | उस पर्वत पर महर्षि वशिष्ठ का आश्रम था | उस समय महर्षि वशिष्ठ अपने आश्रम में नहीं थे, लेकिन वहां उनकी प्रिय कामधेनु की बछड़ी नंदिनी गाय और कई अन्य गायें बंधी हुई थी | उन गायों को देखकर उन वसुओं की पत्नियों ने उन्हें लेने की जिद्द की और उन वसुओं में से एक द्यौ नाम के वसु की पत्नी ने महर्षि वशिष्ठ की प्रिय गाय को भी अपने साथ ले जाने की जिद की | जिसके कारण अपनी पत्नियों की बात मानकर सभी वसुओं ने महर्षि वशिष्ठ के आश्रम से उन गायों को चुरा लिया | जब महर्षि वशिष्ठ वापिस आए तो उन्होंने दिव्य दृष्टि से पूरे घटनाक्रम को देख लिया |

महर्षि वशिष्ठ वसुओं के इस कार्य को देखकर बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने वसुओं को श्राप दे दिया कि उन्हें मनुष्य रूप में पृथ्वी पर जन्म लेना पड़ेगा | इसके बाद सभी वसु महर्षि वशिष्ठ से अपने इस कार्य के लिए क्षमा याचना करने लगे | और इस श्राप से मुक्ति का उपाय भी पूछने लगे | इस पर महर्षि वशिष्ठ ने बाकी वसुओं को तो माफ़ कर दिया और कहा की उन्हें जल्दी ही मनुष्य जन्म से मुक्ति मिल जाएगी लेकिन द्यौ नाम के वसु ने मेरी प्रिय गाय को चुराया है इसीलिए उसे लम्बे समय तक संसार में रहना होगा और दुःख भोगना पड़ेगा | इसी द्यौ नाम के वसु का का जन्म भीष्म के रूप में हुआ | माना जाता है कि महर्षि वशिष्ठ द्वारा श्रापित वसुओं ने गंगा से प्रार्थना की थी कि वे उनकी माता बन जाएँ। इस पर देवी गंगा ने उन्हें उनकी माता रूप में आने का वरदान दिया।

एक श्राप और एक वरदान

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देवी गंगा और शान्तनु

ब्रह्मा द्वारा दिए गए श्राप और वसुओं को दिए गए वरदान की पूर्ति हेतु देवी गंगा पृथ्वी पर मनुष्य रूप में प्रकट हुईं।

एक दिन गंगा तट पर आखेट करते समय उन्हें गंगा देवी दिखाई पड़ी। शान्तनु ने उनसे विवाह का प्रस्ताव रखा। गंगा ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया, लेकिन एक वचन भी माँगा , कि वे जो कुछ भी करेंगी उस विषय में राजा उनसे कोई भी प्रश्न नहीं करेंगे। राजा शांतनु ने देवी गंगा को यहा वचन दे दिया, और इस तरह देवी गंगा और शांतनु के विवाह सम्पन्न हुआ। विवाह के पश्चात् शान्तनु से गंगा को एक के बाद एक सात पुत्र हुए। जो कि सात वसु ही थे, इसीलिए देवी गंगा अपने हर पुत्र के जन्म के बाद उसे नदी में प्रवाहित कर देती थीं । जिससे उनकी मुक्ति हो सके, राजा भी इस विषय में उनसे कोई प्रश्न नहीं कर पते थे क्युकि वो वचनबद्ध थे। बाद में जब उन्हें आठवाँ पुत्र उत्पन्न हुआ तो देवी गंगा उसे भी नदी में फेंकने के लिए निकल गयीं परन्तु इस बार राजा शांतनू से रहा नहीं गया और उन्होंने इस पर अपनी आपत्ति जताई। इस प्रकार गंगा को दिया गया उनका वचन टूट गया और गंगा अपना विवाह रद्द कर स्वर्ग चली गयीं। इसी आठवे पुत्र का नाम भीष्म (देवव्रत ) हुआ। जो कि द्यौ नाम का वही वसु थे जिसे महर्षि वशिष्ठ ने लम्बे समय तक संसार में रहने और दुःख भोगने की श्राप दिया था ।

FAQ

Q. गंगोत्री का पुराना नाम क्या है?

Ans. गंगोत्री का पुराना नाम भागीरथी है।

Q. गोमुख क्या है?

Ans. गोमुख गंगा नदी की एक प्रमुख स्रोतधारा है।

Q. गंगोत्री मंदिर का निर्माण कब हुआ था?

Ans. गंगोत्री मंदिर का निर्माण 18 वीं शताब्दी की शुरुआत में एक गोरखा कमांडर, अमर सिंह थापा द्वारा किया गया था।

Q. यमुनोत्री से गंगोत्री की दूरी कितनी है?

Ans. यमुनोत्री से गंगोत्री की दूरी लगभग 228 किलोमीटर की है।

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