दम्भोद्भव, कर्ण और नर नारायण कथा | Surya Putra Karn Ki Purva Janam Katha

सूर्यपुत्र कर्ण की पूर्व जन्म कथा | Surya Putra Karn Ki Purva Janam Katha

एक बार दम्भोद्भव नाम के असुर ने सूर्य देव की कई वर्षो तक तपस्या की। जिसके फलस्वरूप सूर्य देव प्रकट हुए और दम्भोद्भव से वर मांगने को कहा। इस पर दम्भोद्भव ने अमर होने का वर माँगा। परन्तु सूर्यदेव ने अमरत्व के आलावा और कुछ वर मांगने को कहा। इस पर दम्भोद्भव ने सूर्यदेव से एक विचित्र वर माँगा और कहा की मुझे 1000 कवच चाहिये जिसे वो ही तोड़ पाए जिसने 1000 वर्षो तक तपस्या की हो और वह एक कवच को तोड़ने के बाद ही मर जाये। इस पर सूर्यदेव ने उसे यह वर दे दिया और वहाँ से अंतर्ध्यान हो गए।

वह असुर यह सोच के बहुत खुश हुआ की अब वह अमर है और उसे कोई भी नहीं मार सकता और उसने मनुष्यों पर अत्याचार करना शुरू कर दिया। पर वह यह नहीं जनता था कि, जिसने इस धरती पर जन्म लिया है, उसका मरना भी निश्चित होता है। काफी समय पश्चात् दक्ष प्रजापति ने अपनी पुत्री अहिंसा का विवाह सृष्टि रचियता ब्रह्मा के पुत्र धर्म से करवाया। जिनकी कोख से भगवान् नर नारायण का जन्म हुआ। जिन्होंने धरती पर धर्म का प्रचार-प्रसार किया। जब भगवान् नर नारायण को दम्भोद्भव के अत्याचार के बारे में पता चला तो वह दोनों दम्भोद्भव के वध के लिए निकल जाते हैं।

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नर नारायण

दम्भोद्भव के विचित्र वर के कारण, उसके वध के लिए नर-नारायण भी एक विचित्र युक्ति निकलते हैं। जिसके अनुसार एक बार नारायण दम्भोद्भव को युद्ध के लिए ललकारते हैं और उन दोनों में युद्ध प्रारंभ हो जाता है और 1000 वर्षो तक युद्ध चलने के बाद नारायण दम्भोद्भव के कवच को तोड़ देते हैं और मृत्यृ को प्राप्त हो जाते हैं। इतने में नर आते हैं। जो कि 1000 वर्षो से महादेव की तपस्या कर रहे थे। जिसके फलस्वरूप महादेव ने उन्हें महामृत्युंजय मंत्र दिया था। उस महामृत्युंजय मंत्र से नर ने नारायण को पुनर्जीवित कर दिया।

क्यूकि नर नारायण के जिस्म अलग-अलग थे, परन्तु आत्मा उनमें एक ही थी। इस कारण से एक की तपस्या दूसरे के काम आ रही थी। अतः यह कि 1000 वर्षों तक नारायण की आत्मा ने भी तपस्या की, जिसके कारण वह दम्भोद्भव के कवच को तोड़ पाए। अब नारायण तपस्या करने चले जाते हैं और नर दम्भोद्भव से 1000 वर्षो तक युद्ध करते हैं।

यह क्रम निरंतर इसी प्रकार से चलता रहा। एक तपस्या करते तो दूसरे युद्ध करते। दम्भोद्भव के इसी प्रकार 999 कवच टूट जाते है। अब दम्भोद्भव को समझ में आ जाता है कि उसकी मृत्यु निश्चित है। जिससे घबराकर अपने अंतिम 1000वें कवच को बचने के लिए वह सूर्यदेव की शरण में चला जाता है। नर नारायण भी उसके पीछे-पीछे सूर्यदेव के पास जाते हैं। और सूर्यदेव से दम्भोद्भव को उन्हें सौंपने के लिए बोलते हैं। परन्तु सूर्यदेव नर नारायण से अपनी शरण में आये हुए अपने भक्त को उन्हें सौंपने के लिए मना कर देते हैं ।

सूर्य देव को मिला श्राप (Sun God Got Curse)

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सूर्य देव

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नर-नारायण द्वारा सूर्य देव को काफी समझाने के बाद भी जब वह नहीं माने तो क्रोधित होकर नर नारायण ने सूर्यदेव को श्राप देते हुए कहा कि जिस प्रकार आप इस दुष्ट को इसके पापकर्मो से बचा रहे हैं । उसी प्रकार इसके फलस्वरूप आपको भी इसके पापकर्मो का भागीदार होना पड़ेगा । इन कर्मों को भोगने के लिए आपको भी इस दुष्ट के साथ धरती पर जन्म लेना पड़ेगा और जिस प्रकार हम दो शरीर और एक आत्मा है । उसी प्रकार आपको भी इस दुष्ट के साथ एक ही शरीर में रहकर जन्म लेना पड़ेगा और इस प्रकार इसके पापो की सजा आपको भी भुगतनी होगी ।

इस प्रकार त्रेता युग में सूर्यदेव ने दम्भोद्भव की रक्षा कर ली ।

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सूर्यपुत्र कर्ण

श्राप के फलस्वरूप द्वापर युग में कर्ण का जन्म हुआ जिसमे दम्भोद्भव और सूर्य देव का अंश समाहित था । सूर्य देव के अंश के कारण ही कर्ण परम तेजस्वी था और दम्भोद्भव के अंश के कारण ही उन्हें अपने कर्मफल के लिए अन्याय और अपमान को सहना पड़ा । त्रेतायुग में युद्ध के दौरान आखिरी बचा हुआ दम्भोद्भव का कवच ही द्वापरयुग में कर्ण के पास था ।

त्रेता के नर नारायण ने ही दम्भोद्भव को मारने और धर्म की रक्षा के लिए द्वापर में क्रमशः अर्जुन और श्रीकृष्ण का अवतार लिया। सूर्यदेव के वरदान के कारण अगर अर्जुन कर्ण को उनके कवच के साथ मारते तो अर्जुन का भी वध हो जाता । इसके बारे में अर्जुन के आध्यात्मिक पिता इंद्रदेव को सब मालूम था जिसके कारण इंद्र देव ने युद्ध से पहले ही कर्ण का कवच दान में मांग लिया था । और अंत में अर्जुन यानि नर के हाथो ही कर्ण यानि दम्भोद्भव का अंत हुआ ।

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