जगन्नाथ पुरी धाम | जगन्नाथ पुरी मंदिर की रथ यात्रा का उत्सव | जगन्नाथ पुरी का झंडा कैसे जला | जगन्नाथ पुरी मंदिर का ढांचा | जगन्नाथ पुरी मंदिर का महाभोग | जगन्नाथ मंदिर में यम शिला | ब्रह्म पदार्थ तथा सिंहद्वार का रहस्य | बेड़ी हनुमान | Jagannath Puri Story | Yam Shila in Jagannath Temple | Jagannath Puri Dham | Puri Mandir Photo | Rath Yatra Festival of Jagannath Puri Mandir | Structure of Jagannath Puri Temple | Mahabhog of Jagannath Puri Temple | Brahma Padartha (divine substance) | Mystery of Singhadwar | Bedi Hanuman
जगन्नाथ मन्दिर | Jagannath Temple
जगन्नाथ मन्दिर भारत के ओडिशा राज्य के तटवर्ती शहर पुरी में स्तिथ है, जो भगवान जगन्नाथ (श्रीकृष्ण) को समर्पित है। जगन्नाथ शब्द का अर्थ है, जगत के नाथ अर्थात स्वामी। श्रीकृष्ण भगवान् की इस नगरी को जगन्नाथपुरी कहा जाता है। यह मन्दिर हिन्दुओं के चार धामों बद्रीनाथ, रामेश्वरम, द्वारिका और जगन्नाथपुरी में से एक है।
मान्यता है कि इन चारो धामों के लौकिक होने से काफी समय पहले से ही भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी प्रतिदिन चारों धामों की यात्रा पर निकलते थे और अपने दिनचर्या की शुरुआत में सबसे पहले वह बदरीनाथ जाते और वहां स्नान करते। इसके बाद वह गुजरात के द्वारिका जाते और वहां कपड़े बदलते। द्वारिका के बाद ओडिशा के पुरी में वह भोजन करते और अंत में तमिलनाडु के रामेश्वरम में अपनी संध्या वंदना और विश्राम करते। पुरी में भगवान श्री जगन्नाथ का मंदिर है।
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लौकिक वो जो दिखाई दे । अलौकिक वो जो होते हुए भी दिखाई न दे।
पुरी के इस मंदिर में भगवान जगन्नाथ, उनके भाई बालभद्र और बहन सुभद्रा की काठ की मूर्तियां हैं। लकड़ी की मूर्तियों वाला ये देश का अनोखा मंदिर है। जगन्नाथ मंदिर की ऐसी तमाम विशेषताएं हैं। साथ ही मंदिर से जुड़ी ऐसी कई कहानियां हैं, जो सदियों से रहस्य बनी हुई हैं। यह वैष्णव सम्प्रदाय का मन्दिर है, जो भगवान विष्णु के आठवें अवतार श्री कृष्ण को समर्पित है। यहाँ का वार्षिक रथ-यात्रा उत्सव सबसे प्रसिद्ध उत्सव है। जिसमे कि मन्दिर के तीनों मुख्य देवता, भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भ्राता बालभद्र और बहन सुभद्रा तीनों ही तीन अलग-अलग भव्य और सुसज्जित रथों में विराजमान होकर नगर की यात्रा को निकलते हैं।
जगन्नाथ पुरी का झंडा कैसे जला
मैं आपको बता दूँ कि जगन्नाथ पुरी मंदिर का झंडा कभी नहीं जला। दरअसल एक बार शोशल मिडिया पर जगन्नाथ पुरी मंदिर के झंडे में आग लगने की खबर तेज़ी से वायरल हो रही थी। लेकिन इस पर मंदिर के पुजारी का कहना है कि, एकादशी को मंदिर के गुंबज के ऊपर एक बड़ा दीपक जलाया जाता है। उस दीपक के अगल-बगल में गुंबज की सजावट के लिए कुछ छोटे-छोटे झंडे लगाए जाते हैं। मौसम की खराबी के चलते, वह छोटे झंडे दीपक के संपर्क में आने से जल गए एवं जगन्नाथ भगवान की कृपा से मुख्य ध्वजा में किसी प्रकार की कोई क्षति नहीं पहुंची है।
जगन्नाथ पुरी मंदिर की रथ यात्रा का उत्सव | Rath Yatra Festival of Jagannath Puri Temple
यहां पर दैनिक पूजा-अर्चनाएं तो होती ही हैं। साथ ही यहां कई वार्षिक त्यौहार भी आयोजित होते हैं, जिनमें हजारों की संख्या में लोग भाग लेते हैं। जिसमें कि सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण त्यौहार है – रथ यात्रा, जो कि आषाढ शुक्ल पक्ष की द्वितीया को, हर वर्ष लगभग जून या जुलाई माह में आयोजित की जाती है।
जगन्नाथ रथ यात्रा की शुरुआत 12वीं सदी से होती है। इसका विस्तृत विवरण हिंदू पवित्र ग्रंथों जैसे पद्म पुराण, ब्रह्म पुराण और स्कंद पुराण में मिलता है। पौराणिक कथा के अनुसार, इस दिन, भगवान जगन्नाथ अपनी बहन सुभद्रा और बड़े भाई बलभद्र के साथ अपनी मौसी के घर से होते हुए गुंडिचा मंदिर गए थे। तब से लेकर आज तक यह दिन अब हर साल जगन्नाथ रथ-यात्रा के रूप में मनाया जाता है। इस रथ-यात्रा उत्सव में भगवान की तीनों मूर्तियों (श्री बलराम, श्रीकृष्ण और देवी सुभद्रा) को तीन अलग-अलग अति भव्य और विशाल रथों में सुसज्जित करके रथ यात्रा पर निकालते हैं। यह रथ यात्रा 5 किलोमीटर लम्बी होती है। इसमें लाखों लोग सम्मिलित होते हैं।
जहाँ विश्वकर्मा जी ने भगवान् की इन तीनो मूर्तियों को बनाया था उसे आज गुंडिचा मंदिर के नाम से जाना जाता है। भगवान् जगन्नाथ की रथ-यात्रा इसी गुंडिचा मंदिर तक जाती है।
एक कथा के अनुसार राजा इंद्रद्युम्न और उनकी पत्नी गुंडिचा देवी ने जब ब्रह्मदेव के द्वारा यज्ञ समापन के बाद जब भगवान् जगन्नाथजी की मूर्तियों को स्थापित किया। तब भगवान् जगन्नाथजी ने स्वयं उन्हें दर्शन दिए और वरदान दिया कि आज से देवी गुंडिचा उनकी मौसी होंगी और वह हर वर्ष 9 दिन के लिए अपना धाम छोड़कर उनके पास आया करेंगे । और मेरे इस रथ यात्रा के रथ को घोड़ो द्वारा नहीं बल्कि भक्तो द्वारा खींच कर ले जाया जायेगा और इस प्रकार जगन्नाथ जी के रथ को नंदिघोष, बलभद्र जी के रथ को तलध्वज और बहन सुभद्रा के रथ को दर्पदलन कहा जायेगा ।
एक कथा के अनुसार जब श्रीकृष्ण, बलरामजी और सुभद्राजी जब श्री राधा जी से मिलने द्वारका से वृन्दावन गए तो अपने रथों को छोड़ वह वृंदावन में टहलने निकल गए । लेकिन जब वापस आकर देखा तो उनके रथ के घोड़ो को किसी ने चुरा लिया था इस पर वृन्दावन के लोग ही रथों को खींचकर उन्हें राधाजी के पास मिलवाने ले गए । और उस समय पहली बार श्रीराधा ने श्रीकृष्ण को जगत के नाथ जगन्नाथ नाम से सम्बोधित किया तो इस प्रकार जगन्नथ पुरी (द्वारिका) से गुंडिचा (वृन्दावन) तक यह रथ यात्रा निकलने की मान्यता है।
जगन्नाथ पुरी मंदिर का ढांचा | Structure of Jagannath Puri Temple
- जगन्नाथ मंदिर 4,00,000 वर्ग फुट में एरिया फैला हुआ है और चहारदीवारी से घिरा है। इसकी ऊंचाई 214 फुट है। कलिंग शैली के मंदिर स्थापत्यकला और शिल्पकारी से परिपूर्ण, यह मंदिर भारत के भव्यतम स्मारक स्थलों में से एक है।
- मंदिर का मुख्य ढांचा एक 214 फीट ऊंचे पाषाण चबूतरे पर बना है। इसके भीतर आंतरिक गर्भगृह में मुख्य देवताओं की मूर्तियां स्थापित हैं। यह भाग इसे घेरे हुए अन्य भागों की अपेक्षा अधिक वर्चस्व वाला है।
- मुख्य भवन एक 20 फीट ऊंची दीवार से घिरा हुआ है तथा दूसरी दीवार मुख्य मंदिर को घेरती है। एक भव्य सोलह किनारों वाला एकाश्म स्तंभ, मुख्य द्वार के ठीक सामने स्थित है। इसका द्वार दो सिंहों द्वारा रक्षित हैं।
- भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा, इस मंदिर के मुख्य देव हैं। इनकी मूर्तियां, एक रत्न मण्डित पाषाण चबूतरे पर गर्भ गृह में स्थापित हैं। इतिहास अनुसार इन मूर्तियों की पूजा-अर्चना मंदिर निर्माण से काफी समय पहले से की जाती रही है ।
जगन्नाथ पुरी मंदिर की रसोई | Jagannath puri Temple Kitchen
जगन्नाथ मंदिर का एक बड़ा आकर्षण यहां की रसोई है। यहाँ की रसोई को भारत की सबसे बड़ी रसोई के रूप में जानी जाती है। इस विशाल रसोई में भगवान को चढाने वाले महाप्रसाद को तैयार करने के लिए 500 रसोईए तथा उनके 300 सहयोगी काम करते हैं। यहाँ की रसोई की एक खास बात यह भी है कि मंदिर के प्रसाद लकड़ी के चूल्हे पर बनाया जाता है, इस प्रसाद को 7 बर्तनो में पकाया जाता है।
सातों बर्तनो को एक के ऊपर एक करके एक-साथ रखा जाता है। इसमें सबसे हैरानी की बात ये है कि जो बर्तन सबसे ऊपर यानी सातवें नंबर का होता है उसे में परसाद सबसे पहले बनकर तैयार होता है सके बाद छठे, पांचवे, चौथे, तीसरे, दूसरे और सब अंत में पहले यानी सबसे नीचे के बर्तन का प्रसाद तैयार होता है। इस रसोई से जुड़ा एक और रहस्य यह है कि यहाँ का बना परसाद कभी भी कम नहीं पड़ता है चाहे लाखो में भक्त आ जाये परन्तु मंदिर का गेट बंद होने के बाद प्रसाद अपने आप ही खत्म हो जाता है ।
महाभोग | Mahabhog
काफी समय पहले यहाँ का महाभोग सभी के लिए नहीं होता था। महादेव और ब्रह्मदेव भी यहाँ के महाभोग के लिए तरसते थे। माता लक्ष्मी प्रभु नारायण के लिए आज की तरह ही 7 बर्तनों में एक के ऊपर एक रखके महाभोग बनाती थी। तभी से यह परम्परा चली आ रही है।
एक बार की बात है, जब नारदमुनि को इस महाभोग के बारे में पता चला तो वह भी इस महाभोग को चखने की लालसा लिए देवी लक्ष्मी के पास पहुंचे। काफी माना करके के वावजूद और कई सालो की कड़ी तपस्या के बाद एक दिन उन्होंने देवी लक्ष्मी से महाभोग चखने का वर पा ही लिया। लेकिन उन्हें यह बात गुप्त रखनी थी। पर नारदमुनि के पेट में कोई भी बात पचती ही कहाँ है। उन्होंने जाकर सब को इसके बारे में बता दिया। जिसके कारण माता पारवती अपने भाई नारायण से रुष्ठ हो गई।
इसके लिए नारायण ने अपनी बहन को मानाने के लिए अपने हाथो से महाभोज तैयार कर माता पारवती को परोसा। अब माता पारवती हैं तो जगतजननी। उन्होंने कहा कि यह महाभोग मेरे साथ-साथ सभी के लिए होना चाहिए। मैं इसे खा लू और मेरी संतान इससे वंचित रह जाये। ऐसा कैसे हो सकता है । मैं इसे अकेले कैसे ग्रहण करू। इस पर नारायण से घोषणा की कि अब से आपको भोग लगने के बाद ही मैं यह भोग लूँगा और इसके बाद यह महाभोग सभी में बांटा जायेगा । तभी से यह महाभोग सबसे पहले माँ विमला देवी को चढ़ाया जाता है । उसके बाद भगवान् जगन्नाथजी को यह भोग चढ़ाकर सभी में बांटा जाता है ।
जगन्नाथ पुरी मंदिर की 22 सीढ़ियाँ (बैसी पहाचा) | 22 Steps (Baisi Pahacha) of Jagannath Puri Temple
बैसी पहाचा यानि 22 सीढ़ियाँ, जो मंदिर के अंदर सिंह द्वार (सिंघद्वार गुमुता) को दूसरे द्वार (बैसी पहाचा गुमुता) से जोड़ती है, जो कि लंबे समय से श्री जगन्नाथ मंदिर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है। हालाँकि इसके निर्माण का सही समय ऐतिहासिक या पौराणिक ग्रंथों में कहीं नहीं बताया गया है, लेकिन किंवदंतियाँ कहती हैं कि इसका निर्माण भानुदेव नामक राजा ने करवाया था।
श्री जगन्नाथ मंदिर के सिंह द्वार से गुजरने के बाद, हर किसी को इन सीढ़ियों से ऊपर जाना होता है और फिर दूसरे प्रवेश द्वार से होकर आंगन में जाना होता है, जहां से मुख्य मंदिर तक जाया जा सकता है। प्रत्येक सीढ़ी की लंबाई 70 फीट, चौड़ाई 6 फीट और ऊंचाई 6-7 इंच है।
जगन्नाथ मंदिर में यम शिला की रोचक कहानी | Interesting story of Yama Shila
कलयुग की शुरुआत में जब लोग जगन्नाथ पुरी के दर्शन के लिए जाते थे तो जन्म और मृत्यु के बंधन के मुक्त हो जाते थे चाहे उनके कर्म कैसे भी हो, इस पर यमदेव ने अपनी चिंता महालक्ष्मी और प्रभु जगन्नाथ को बताई इस पर माता लक्ष्मी ने उन्हें वह से चले जाने को कहा क्युकि प्रभु जगन्नाथ ने लोगो के उद्धार के लिए ही जगन्नाथ पुरी को चुना था।
यमराज को जाते देख और उनके कार्य की बाधा को मिटाने के लिए जगन्नाथ जी ने यमदेव से मंदिर की तीसरी सीढ़ी पर लेटने को कहा और वरदान दिया कि जो कोई भी मंदिर में प्रवेश करते वक्त इस आप पर पैर रखेगा और मेरे दर्शन करेगा तो उनको समस्त पापों से मुक्ति मिल जाएगी परन्तु अगर कोई मंदिर से वापस जाते समय आप पर पैर रखेगा तो आप उनसे मेरे दर्शन और उनके समस्त पाण्यो को छीन सकते हैं ।
तीसरे चरण में “यमशिला” नामक एक पत्थर उकेरा गया है, जो कि अन्य पत्थरों की तुलना में काले रंग का है। जिस पर भक्तों को सीढ़ियाँ चढ़ते समय पैर रखना चाहिए क्युकि यह यम द्वारा दंडित किए जाने के कारणों से मुक्त करता है, लेकिन वापस आते समय पत्थर पर पैर नहीं रखना चाहिए, क्योंकि यह श्री जगन्नाथ दर्शन के पुण्य को छीन लेता है। और फिर उसे यमलोक जाना ही पड़ता है।
श्री जगन्नाथ पुरी प्राचीन नाम नीलमाधव | Shree Jagannath Puri ancient name Nilamadhav
श्री जगन्नाथ पुरी पहले नील माधव के नाम से पूजा जाते थे। नील माधव, भील सरदार विश्वासु के आराध्य देव थे। अब से लगभग हजारों वर्ष पुर्व भील सरदार के राजा विश्वासु नील पर्वत की गुफा के अन्दर नील माधव जी की पुजा किया करते थे।
मालवा नरेश इंद्रद्युम्न जो कि विष्णु भगवान के बड़े उपसक थे, एक दिन उनको एक ब्राह्मण ने ओडिशा के नील माधव के बारे में बताया जिससे प्रभवित होकर उनके दर्शन के लिए राजा ने एक ब्राह्मण पुजारी विद्यापति को विश्वासु के पास भेजा। लेकिन विश्वासु ने उस जगह के बारे में बताने से विद्यापति को साफ मना कर दिया, क्युकी विश्वासु ही उस जगह को जनता था जिसके चलते विद्यापति उसी के गांव में रहने लगे और उन्हें विश्वासु की बेटी ललिता से प्यार हो गया और उन्होंने उससे शादी कर ली।
उसके बाद विद्यापति के कहने पर विश्वासु अपने दामाद को आंखों पर पट्टी बांधकर गुफा में ले जाने को तैयार हो गए जहां उन्होंने नील माधव की पूजा करते थे। विद्यापति ने बड़ी चालाकी से रास्ते में राई के दानो को गिरा दिया। जिससे वह बाद में राजा को वहां ले जा सके, इसके बाद विद्यापति ने अपने राजा इंद्रद्युम्न को उस जगह के बारे में बता दिया, जिसके बाद राजा इंद्रद्युम्न नील माधव के दर्शन के लिए ओडिशा गए। मगर उनके वहां जाने से पहले ही मूर्ति वहां से अंतर्ध्यान हो गई । इससे वो उदास होकर अपने राज्य को वापस आ गए ।
कुछ किवदंतियो के अनुसार विद्यापति इंद्रद्युम्न के छोटे भाई थे और उन्होंने निल माधव की मूर्ति को वह से चुरा कर जगन्नाथपुरी में स्थापित कर दिया था। जिसे ही बाद में जगन्नाथ पुरी की मूर्तियां बनने के बाद वहां की प्राणप्रतिष्ठा करवाई गई उसे ही आज लोग ब्रह्म पदार्थ कहते हैं ।
जगन्नाथ पुरी मंदिर कहानी | Jagannath Puri Temple Story
एक दिन राजा इंद्रद्युम्न को स्वप्न में विष्णु भगवान् ने दर्शन देते हुए कहा कि वह पुरी के समुद्र तट पर जाये और उसे पानी में एक लकड़ी का लठ्ठा मिलेगा। उसी लकड़ी से वह मूर्ति का निर्माण कराये। राजा ने ऐसा ही किया और उसे लकड़ी का लठ्ठा मिल भी गया। कहते हैं कि इस लकड़ी के लट्ठे को उठाने में कोई में भी समर्थ नहीं था जिसे बाद विद्यापति के ससुर के हाथो ही उसे बहार निकलवाया गया। मगर राजा का कोई भी मूर्तिकार उससे मूर्ति को तराश पाने में असमर्थ था।
एक दिन भगवान् विश्वकर्माजी एक बूढ़े मूर्तिकार के रूप में उनके सामने उपस्थित हुए, और उन्होंने राजा को मूर्ति तराशने का आश्वासन दिया, किन्तु उन्होंने यह शर्त रखी, कि वे 21 दिन में मूर्ति तैयार कर देंगे, परन्तु तब तक वह एक कमरे में बन्द रहेंगे और राजा या कोई भी उस कमरे के अन्दर नहीं आएगा। काफी दिनों तक कमरे के अंदर से छेनी और हथौड़ी की आवाजे आती रहीं, परन्तु जब 15 दिन के बाद कोई भी आवाज नहीं आयी, तो उत्सुकता वश राजा की पत्नी देवी गुंडिचा ने कमरे के द्वार को खोल दिया। इतने में वृद्ध कारीगर बने विश्वकर्माजी मूर्ती को अधूरा छोड़ वहां से अंतर्ध्यान हो गए।
यही कारण है कि जगन्नाथ मंदिर की मूर्तियाँ आज भी अपूर्ण ही हैं। राजा इंद्रद्युम्न ने उसी रूप में उन मूर्तियों की स्थापना की, जो आज जगन्नाथ मंदिर के नाम से प्रसिद्द हैं । जहाँ श्रीकृष्ण भगवान् जगन्नाथ के रूप में बड़े भाई बलराम और छोटी बहन सुभद्रा के साथ विराजमान हैं । और जहाँ विश्वकर्मा जी ने भगवान् की इन तीनो मूर्तियों को बनाया था उसे आज गुंडिचा मंदिर के नाम से जाना जाता है, भगवान् जगन्नाथ की रथ-यात्रा इसी गुंडिचा मंदिर तक जाती है ।
एक अन्य कथा के अनुसार एक बार भगवान् कृष्ण द्वारका में आराम कर रहे थे और उनके मुख से बार-बार श्रीराधा का ही नाम निकल रहा था। इस पर सत्यभामा और रुकमिणीजी नाराज हो गयीं और वह इसकी शिकायत करने के लिए माता रोहिणी के पास पहुंची। कि हम दोनों दिन-रात श्रीकृष्ण के सेवा करते है। फिर भी वह हमारा नाम तो कभी भी नहीं लेते। इस पर वह श्रीकृष्ण और श्रीराधा की प्रेम कथा सुनाती हैं, कि कैसे वह दोनों दो शरीर होते हुए भी एक ही हैं।
लेकिन इसके लिए वह सुभद्राजी को कमरे के द्वार पर खड़ा कर देती हैं, जिससे कि कथा सुनाते समय कहीं श्रीकृष्ण न आ जाये। पर कथा को सुनते सुनते श्रीकृष्ण और बलरामजी भी आ जाते हैं, और इस प्रकार वह तीनो कथा को सुनते-सुनते पानी की तरह बहने लगते हैं, और इस घटना को नारद जी द्वारा देख लेने पर श्रीकृष्ण इसी रूप में नारदजी को कलयुग के अपने जगन्नाथ रूप में अवतरित होने के लिए वरदान देते हैं।
जरा और बाली का सम्बन्ध | Jara and Bali’s relationship
कहते हैं कि जब भगवान् राम ने छिप कर बाली को मारा था तो उन्होंने बाली को वरदान दिया कि द्वापर युग में तुम जरा नामक एक भील होंगे और तुम्हारे द्वारा चलाये गए तीर से ही मैं अपना देह त्याग करूंगा। जब ये वरदान फलित हुआ तो श्रीकृष्ण की मर्त्यु के बाद इसी जरा भील ने श्रीकृष्ण का अंतिम संस्कार किया था। श्रीकृष्ण का सारा शरीर तो जल गया परन्तु श्रीकृष्ण का ह्रदय उसमे नहीं जला जिसे कि जरा ने लकड़ी के टुकड़े पर बढ़कर नदी में प्रवाहित कर दिया जो कि तैरते हुए पुरी के तट पर आ गया। जिसे ही मालवा नरेश इंद्रद्युम्न ने विश्वकर्माजी की सहायता से जगन्नाथ पुरी की मूर्तियों का निर्माण करवाया।
मान्यता है कि भगवान श्री कृष्ण का हृदय आज भी एक जिंदा इंसान की तरह ही धड़कता है कहते हैं कि वो दिल आज भी सुरक्षित है और भगवान जगन्नाथ की लकड़ी की मूर्ति के अंदर स्थित है । माना जाता है कि जगन्नाथ पुरी में विराजमान ठाकुरजी ही एकमात्र जीवंत ठाकुरजी हैं, जो कि सभी की हर मनोकामना को सुनते भी हैं, और उसे पूरा भी करते हैं।
भगवान् जगन्नाथ के बीमार पड़ने के पीछे की कहानी | The story behind Lord Jagannath falling sick
एक प्रचलित किवदंती के अनुसार, ओडिशा शहर के एक छोटे से गांव में माधवदासजी रहते थे और भगवान् जगन्नाथ का भजन किया करते थे और भगवान् जगन्नाथजी के मंदिर में दर्शन के लिए नित्य-प्रतिदिन जाया करते थे और भगवान् जगन्नाथ की खूब सेवा किया करते थे।
एक दिन अचानक माधवदासजी की तबियत खराब हो गई और वे इतने कमजोर हो गए की उन्हें उठने-बैठने में भी समस्या होने लगी माधवदासजी अकेले रहते थे और अपना काम स्वयं ही किया करते थे, लेकिन इतना बीमार होने के बावजूद भी उन्होंने भगवान् जगन्नाथ से अपनी आस्था नहीं छोड़ी और वे नित्य-प्रतिदिन ही भगवान् जगन्नाथ की पूजा-आराधना किया करते थे ।
अपने भक्त की श्रद्धा और उनकी उन पर अपार आस्था को देखकर भगवान् जगन्नाथ एक सेवक के रूप में अपने भक्त के पास जाते हैं, और उनकी सेवा करते हैं। भगवान् जगन्नाथ के सेवा से जब माधवदासजी कुछ स्वस्थ हो गए और जब उन्हें होश आ गया तो वे सेवक बने अपने प्रभु भगवान् जगन्नाथजी को पहचान गए और उन्होंने भगवान् जगन्नाथ को ऐसा करने से रोका और कहा कि हे प्रभु आप मेरी सेवा क्यों कर रहे हैं जबकि आप तो मुझे पल-भर में ही ठीक करने की शक्ति रखते हैं ।
इस पर भगवान् जगन्नाथ कहते हैं, कि ये तम्हारे पूर्व जन्म के कर्म-फल हैं, जो कि तुम्हे भोगने ही हैं। अगर तुम इन्हे नहीं भोगोगे, तो इन्हे भोगने के लिए तुम्हे एक और जन्म लेना पड़ेगा और में ऐसा नहीं चाहता था । परन्तु माधवदासजी ने भगवान् जगन्नाथ को अपनी सेवा करने से मना कर दिया तो इस पर प्रभु ने माधवदासजी का बचा हुआ 15 दिन का रोग अपने ऊपर ले लिया और माधवदासजी को जन्म और मर्त्यु के चक्र से मुक्त कर दिया । तब से लेकर आज तक भगवान् जगन्नाथजी हर वर्ष 15 दिन के लिए बीमार हो जाते हैं ।
मान्यता यह है कि, ज्येष्ठ मास के पूर्णिमा तिथि के दिन भगवान जगन्नाथ, बहन सुभद्रा और बड़े भाई बलभद्र को गर्भ गृह से बाहर लाया जाता है, और उन्हें सहस्त्र स्नान कराया जाता है। स्नान के बाद भगवान जगन्नाथ बीमार पड़ जाते हैं और उन्हें बुखार आ जाता है। जिस कारण से वह 15 दिनों तक एकांत शयन कक्ष में विश्राम मुद्रा में रहते हैं। इस दौरान उनका विशेष ध्यान रखा जाता है। उन्हें कई प्रकार की औषधियां दी जाती है।
सादा भोजन जैसे खिचड़ी इत्यादि का भोग लगाया जाता है। 15 दिनों तक वे केवल काढ़ा और फलों का जूस ही पीते हैं। सोने से पहले मीठा दूध अर्पित किया जाता है। साथ ही पूरे 15 दिनों तक भगवान को शीतल लेप भी लगाया जाता है। इस दौरान मंदिर में न तो घंटी बजती है और ना ही भक्तों को दर्शन करने की अनुमति होती है। आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि के दिन वह अपने विश्राम कक्ष से बाहर निकलते हैं और इस दिन भव्य रथ-यात्रा निकाली जाती है।
कुछ इतिहासकारों का विचार है कि इस मन्दिर के स्थान पर पूर्व में एक बौद्ध स्तूप हुआ करता था। उस स्तूप में गौतम बुद्ध का एक दाँत रखा था। बाद में इसे इसकी वर्तमान स्थिति, कैंडी, श्रीलंका पहुँचा दिया गया। इस काल में बौद्ध धर्म को वैष्णव सम्प्रदाय ने आत्मसात कर लिया था और तभी भगवान् जगन्नाथ ने लोकप्रियता पाई। यह दसवीं शताब्दी के लगभग हुआ, जब उड़ीसा में सोमवंशी राज्य चल रहा था।
कहा जाता है कि महान सिख सम्राट महाराजा रणजीत सिंह ने इस मन्दिर को काफी मात्रा में स्वर्ण दान किया था, जो कि उनके द्वारा स्वर्ण मंदिर, अमृतसर को दिये गये स्वर्ण से कहीं अधिक था। उन्होंने अपने अन्तिम दिनों में यह वसीयत भी की थी, कि विश्व प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा, (जो विश्व में अब तक सबसे मूल्यवान और सबसे बड़ा हीरा है) इस मन्दिर को दान कर दिया जाये। लेकिन यह सम्भव ना हो सका, क्योकि उस समय तक ब्रिटिश ने पंजाब पर अपना अधिकार करके उनकी सभी शाही सम्पत्ति जब्त कर ली थी। वर्ना कोहिनूर हीरा भगवान जगन्नाथ के मुकुट की शान होता।
जगन्नाथ पुरी मंदिर के बारे में 10 रोचक तथ्य | 10 Interesting Facts About Jagannath Puri Temple
- जगन्नाथ मंदिर के ऊपर लगा झंडा हमेशा हवा की विपरीत दिशा में ही लहराता है।
- मुख्य मंदिर के शिखर पर भगवान् श्रीहरि विष्णु का सुदर्शन चक्र शुशोभित है। इसे नीलचक्र भी कहते हैं। यह अष्टधातु से निर्मित है और अति पावन और पवित्र माना जाता है।
- इस सुदर्शन चक्र की विशेषता है कि पुरी के किसी भी स्थान से चक्र को देखने पर यह हमेशा सीधा (सामने की तरफ) ही दिखाई देता है।
- प्रतिदिन शाम को, मंदिर के ध्वज को बदला जाता है। कहते हैं कि अगर एक भी दिन ध्वज को न बदला गया तो मंदिर 18 सालों के लिए बंद हो जायेगा ।
- मंदिर के ध्वज को बदलने वाला व्यक्ति उस पर उल्टा चढ़कर ध्वज को बदलता है। जिसे देखने के लिए मंदिर के प्रांगण में भारी भीड़ जमा हो जाती है।
- जगन्नाथ मंदिर के ध्वज पर भगवान शिव का चंद्र बना होता है।
- जगन्नाथ मंदिर के परिसर में प्रसाद को पकाने के लिए सात बर्तनों को एक दूसरे के ऊपर रखा जाता है।
- मंदिर का प्रसाद कभी भी कम नहीं पड़ता है। जिसके कारण यह कभी भी व्यर्थ नहीं होता है ।
- जगन्नाथ पुरी मंदिर के गुंबद की छाया कभी भी दिखाई नहीं देती है, यानि अदृश्य रहती है।
- जगन्नाथ मंदिर के गुंबद के ऊपर से होकर कोई भी पक्षी या विमान नहीं उड़ता है।
हर 12 साल में बदली जाती हैं मूर्तियां | The idols are changed every 12 years
जगन्नाथ पुरी मंदिर की तीनों मूर्तियों को हर 12 साल में बदला जाता रहा है । इन पुरानी मूर्तियों की जगह नई मूर्तियों को स्थापित कर दिया जाता है । मूर्ती बदलने के इस अनुष्ठान को नव कलेवर के नाम से जाना जाता है । इस अनुष्ठान का आयोजन सिर्फ अधिक के महीने में ही पूर्ण किया जाता है।
मूर्ति बदलने की इस प्रक्रिया में, जिस वक्त मूर्तियां बदली जाती हैं, उस समय पूरे शहर में बिजली काट दी जाती है। इसके आलावा मंदिर के आसपास पूरी तरह से अंधेरा कर दिया जाता है। मंदिर के बाहर सीआरपीएफ की सुरक्षा तैनात कर दी जाती है। इस दौरान मंदिर में किसी का भी प्रवेश वर्जित होता है । मंदिर में सिर्फ उसी पुजारी को मंदिर के अंदर जाने की इजाजत होती है, जिन्हें मूर्तियां बदलनी होती हैं। मूर्तिया बदलने वाले पुजारी की आँखों में पट्टी बाँध दी जाती है और हाथों में भी कपडा लपेट दिया जाता हैं।
मूर्ति बदलने की इस प्रकिया के दौरान पुरानी मूर्ति में से श्रीकृष्ण के दिल (जिसे ब्रह्म पदार्थ भी कहा जाता है) को निकल लिया जाता है और इसे नयी मूर्ति में स्थापित कर दिया जाता है।
क्या है यह ब्रह्म पदार्थ? | what is this divine substance?
यह ब्रह्म पदार्थ क्या है, इसकी जानकारी किसी के पास नहीं है। बस कुछ किस्से हैं, जो मूर्ति बदलने वाले पुजारियों से सुनने को मिलते हैं। पुजारी बताए हैं कि उनको भी नहीं पता होता है कि वो क्या है। क्युकि उनका मानना है कि अगर किसी ने भी इस ब्रह्म पदार्थ को देख लिया तो तुरंत ही उसकी मौत हो जाएगी। और सामने वाले के शरीर के चीथड़े उड़ जाएंगे।
पुजारी आगे बताते हैं कि जब हम इस ब्रह्म पदार्थ को पुरानी मूर्ति से निकालकर नई मूर्ति में डालते हैं तो उस वक्त ऐसा लगता है, कि हाथों में कुछ उछल रहा है, जैसे कि कोई खरगोश उछल रहा हो, ऐसी कोई चीज है जिसमें जान है। क्योंकि हाथों में दस्ताने होते हैं, इसलिए उस पदार्थ के बारे में ज्यादा एहसास नहीं हो पाता है। यानी ब्रह्म पदार्थ के किसी जीवित पदार्थ होने की कहानियां जरूर हैं, लेकिन हकीकत क्या है, यह तो कोई नहीं जानता है ।
सिंहद्वार का रहस्य | secret of singhdwara
जगन्नाथ पुरी मंदिर समुद्र के किनारे पर स्तिथ है, मंदिर में एक सिंहद्वार है । कहा जाता है कि सिंहद्वार के अंदर कदम रखते ही समुद्र की लहरों की कोई भी आवाज नहीं आती है, लेकिन जैसे ही सिंहद्वार के बहरा कदम रखते हैं वैसे ही समुद्र की लहरों की आवाज आना पुनः चालू हो जाता है । इसके पीछे भी एक रोचक कथा जुडी हुई है, तो आइये जानते है सिंहद्वार के इस रहस्य के बारे में।
हवा के विरुद्ध ध्वज का लहरना और समुद्र की लहरों की आवाज का मंदिर के अंदर प्रवेश न करना, दोनों का संबंध हनुमान जी से ही है।
पौराणिक कथा के अनुसार समुद्र की आवाज के कारण भगवान विष्णु को विश्राम करने में कठिनाई होती थी। जब यह बात हनुमान जी को पता चली तो उन्होंने समुद्रदेव से कहा कि हे समुद्रदेव कृपया आप अपनी वाणी को रोक लें क्योंकि आपकी लहरों के शोर से मेरे प्रभु को निद्रा प्राप्त करने में परेशानी हो रही है। तब समुद्रदेव ने कहा कि यह मेरे वश में नहीं है। यह ध्वनि उतनी ही दूर तक जाएगी जितनी कि हवा की गति जाएगी। इसके लिए आपको अपने पिता पवनदेव से बात करनी चाहिए।
तब हनुमान जी ने अपने पिता पवन देव का आह्वान किया और उन्हें मंदिर की दिशा में न बहने के लिए कहा। इस पर पवनदेव ने अपनी असहमति जताते हुए कहा कि मेरे लिए यह संभव नहीं है। क्युकि पवन का तो स्वाभाव ही होता है बहते रहना । इसके लिए पवन देव ने हनुमान जी को एक उपाय दिया और कहा कि अगर आप मंदिर के चारो और निर्वाण की स्तिथि उत्पन्न कर दें तो किसी भी ध्वनि की आवाज मंदिर प्रवेश नहीं कर सकेगी ।
फिर हनुमानजी ने हवा से भी तेज गति से मंदिर की परिक्रमा की । जिससे कि हवा का ऐसा चक्र बना कि समुद्र की आवाज मंदिर के अंदर न जाकर मंदिर के चारों ओर ही घूमती रहती है और श्री जगन्नाथ जी मंदिर में आराम से विश्राम करते हैं। इसी वजह से मंदिर की ध्वजा भी हवा के विपरीत दिशा में ही लहरती रहती है।
प्रभु जगन्नाथजी ने जगन्नाथ पुरी धाम की सुरक्षा हनुमानजी को सौंप रखी है । जिसके कारण
- उत्तरी द्वार पर अष्टभुज हनुमान पद्मासन की मुद्रा में हैं और वह अपने हाथ में चक्र को पकडे हुए हैं ।
- पूर्व में सिंघद्वार पर संकटमोचन हनुमान के रूप में पूजा जाता है।
- दक्षिण में हनुमानजी की 7 फूट की प्रतिमा है, यहाँ उन्हें बड़ा भाई हनुमान
- और पश्चिम में कानपाटा हनुमान के रूप में पूजा जाता है। हनुमानजी के चारो द्वारों पर स्थापित होने के बाद जगन्नथपुरी का यह धाम पुनः अलौकिक से लौकिक बन गया ।
बेड़ी हनुमान | Bedi Hanuman
कहते हैं कि एक बार समुद्रदेव भगवान् जगन्नाथ के दर्शन करना चाहते थे। जिसके फलस्वरूप जगन्नाथ पुरी में भयंकर प्रलय की स्तिथि उत्पन्न हो गयी जिसके चलते प्रभु ने हनुमानजी को वहाँ पर नियुक्त किया और ध्यान रखने को कहा कि समुद्रदेव अपने स्थान पर ही रहे। यहाँ से आगे न बढ़ पाएं। पर हनुमानजी भी ठहरे राम भक्त। वह भी अपने प्रभु के दर्शन के लिए बार-बार मंदिर की ओर खींचे चले आते।
इस प्रकार जब भी हनुमानजी अपने प्रभु के दर्शन के लिए मंदिर के अंदर जाते। तभी समुद्रदेव भी अवसर पाकर मंदिर के अंदर आने का प्रयास करते। ऐसा तीन बार हुआ। राम काज़ में और बढ़ा न आये इसके लिए हनुमान जी के आग्रह पर भगवान् जगन्नाथजी ने उनको समुद्र तट पर ही राम नाम की बेड़ियों में बांध दिया। और समुद्रदेव को अपनी चरण धोने का अवसर प्रदान किया। उसी जगह को आज बेड़ी हनुमान के रूप में पूजा जाता है। कहा जाता है कि यहाँ पर स्नान किये बिना प्रभु जगन्नाथ के दर्शन का लाभ नहीं मिलता है।